Tittle- गुरु कैसे और किसे बनाना चाहिए- गुरु क्यो बनाना चाहिए और जिंदगी में गुरु का कया महत्व है- जिंदगी में जिस प्रकार मां-बाप का पालन पोषण के लिए बहुत बड़ा महत्व है। उसी प्रकार जिंदगी में सही रास्ता और मार्गदर्शन करने के लिए गुरु का बनाना बहुत ज्यादा जरूरी है। जैसे पढ़ने के लिए हमें स्कूल की जरूरत होती है उसी प्रकार जिंदगी में सही मार्गदर्शन और आध्यात्मिक रास्ता दिखाने के लिए गुरु का होना बहुत जरूरी है। आईए जानते हैं आज से आज विस्तार से गुरु का जीवन में क्या महत्व है। संत कबीर दास ने गुरु को भगवान से भी बड़ा बताया है.
गुरु से मिलकर परमात्मा को कैसे पायें-
किसी भी इंसान को भगवान के साथ जुड़ने के लिए गुरु का होना बहुत जरूरी है क्योंकि बिना गुरु के आप भगवान से जुड़ नहीं सकते। जिसे भी आप अपना ग्रू बनाएं सबसे पहले उसे खुद भी ज्ञान होना बहुत जरूरी है। केवल प्रवचन करने से कोई गुरु नहीं बनता उसको पहले खुद भगवान के साक्षात्कार सुख हो तभी वह किसी को भगवान का ज्ञान दे सकता है।
जीवन के हर क्षेत्र में हमें गुरु की जरूरत रहती है, जिस प्रकार बचपन में हमें मां-बाप चलना, बोलना सीखते हैं, स्कूल में टीचर हमें पढ़ना सीखते हैं, तैरने के लिए हमें तारक की जरूरत पड़ती है, इस प्रकार आध्यात्मिक सुख के लिए हमें गुरु की जरूरत होती है, क्योंकि आध्यात्मिकता भी एक कला है। गुरु के बिना हम किसी भी रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकते। जब तक किसी इंसान को भगवान को देखने के ललक लगती है तो वह कभी निराश और कभी बहुत उत्साहित होता है तो ऐसे में अगर हमारे पास कोई गुरु है तो वह अपने शिष्य को उसे समय सहज कर सकता है। जब वह आध्यात्मिक जिज्ञासा के प्रति अधिक उत्साहित होता है गुरु उसकी नाव को हिलने नहीं देता, इसलिए जीवन में गुरु का महत्व बताया गया है।
* सच्चे गुरु की महिमा-
सच्चा क्यू चाहिये- कबीर दास ने गुरु को गोविन्द से ऊंचे पद पर प्रतिष्ठित किया है । उनसे प्रश्न किया गया कि गुरु गोविन्द से श्रेष्ठ और ऊंचा कैसे है ?
गुरु गोविन्द हो नहीं पाया है , वह गोविन्द होने की राह पर है । गोविन्द होना उसका लक्ष्य है । फिर वह गुरु गोविन्द से ऊंचा और प्रथम पुज्य क्यों ?
गुरु , गोविन्द से प्रथम पुज्य इसलिए है कि उसने हमें गोविन्द को पहचानने की आंख दी है और गुरु की दी हुई यदि आंख हमारे पास न हो तो हम गोविन्द को पहचान ही कैसे पाते ।
गोविन्द होना इतना दुसाध्य नहीं है जितना गोविन्द होने की विधि को जानना दुसाध्य है ।
गुरु उस दुसाध्य को सुसाध्य बनाता है । वह आत्मा में न केवल परमात्मा होने की प्यास जगाता है अपितु उसे परमात्मा को पाने का उपाय भी देता है । उसकी आत्मा पर चढ़े कर्मकल्मष को काटने का औजार प्रदान करता है । स्वार्थ बाधित बनने लगे तो रिश्ते रेत के घरोंदों की तरह ढह जाते हैं । गुरु का रिश्ता स्वार्थ का नहीं होता है । वह तो सत्य पर आधारित होता है । गुरु सत्य का महास्त्रोत होता है और शिष्य सत्य का अभिप्सु होता है । सत्य गुरु और शिष्य के मध्य रिश्ते का संधान करता है । इसलिए यह रिश्ता अखंड और परम होता है ।
मानव जीवन का परम लक्ष्य है भगवान की प्राप्ति और इस लक्ष्य की प्राप्ति सद्गुरु कृपा से ही हो सकती है । मानव के सामने संसार में अनेक रास्ते दिखाई पड़ते हैं और वहां पर किसी भी रास्ते में जाने से मोह माया की प्राप्ति होती है। वह अन्य किसी रास्ते पर जाने से जीव को भगवद् प्राप्ति होती है और जीव यहीं पर भटक जाता है । यहां पर सद्गुरु ही जीव को बता सकते हैं कि तू इस रास्ते पर चले तो तुझे प्रभु प्राप्ति होगी । जीवन में हम एक सच्चा गुरु धारण कर लें तो हम कभी धोखा नहीं खा सकते परंतु गुरु वही जो आपकी इच्छाओं को खत्म कर दे । जहां जाकर आपकी इच्छा बढ़ने लगे तथा वह गुरु आपकी इच्छा पूरी करने की बात कहे वह गुरु नहीं हो सकता । उस परम सुख का द्वार हमें गुरु से मिलता है ।
इसलिए कहा गया है कि गुरु ब्रह्मा है , गुरु ही विष्णु है , गुरु ही महादेव है । और गुरु ही परब्रह्म है ।
गुरु के लिए बंधन है कि गुरु को तभी मंत्र देना चाहिये जब उसने स्वयं मंत्र को सिद्ध किया हो । बिना सिद्ध किए मंत्र देना गुरु गुरु के लिए ठीक नहीं है। मंत्र उत्तराधिकारी वही बन सकता है जिसने पहले खुद मंत्र को सिद्ध कर लिया हो जिसे मंत्र की कुछ अनुभूतियां प्राप्त कर ली हो। जिसने मंत्र के देवता को देख लिया हो तो वह मंत्र दान वही संत सद्गुरु कर सकता है। जो अपना सद्गुरु हो और फिर उसने जो मंत्र दिया हो उसको छोड़ना मत तुम भरोसे से विश्वास से उसको जपते रहो।
ज्ञान प्राप्त कराने वाले को ही गुरु शब्द से संबोधित किया जाता है जो जीव के अंदर व्याप्त अंधकार को मिटा कर सत् पथ की ओर ले जाए वही गुरु है । अज्ञान रूपी गांठ को खोल कर मुक्त कराने में समर्थ ब्रह्म ज्ञानी को ही गुरु कहा जाता है । गुरु चलता फिरता ब्रह्म है । गुरु ही जीव को आवागमन से मुक्त कराता है ।
माता - पिता और गुरु के आशीर्वाद से ही सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले लिए थे । इसी प्रकार नचिकेता ने मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का श्रेय प्राप्त किया था । गुरु में निष्ठा रखने वाला साधक अवश्य सफलता प्राप्त करता है । गुरु का शरीर पूरा हो जाए तब भी वह अपने शिष्य की मनोकामना पूर्ण करता रहता है । यदि गुरु की कृपा हो जाए तो गूंगा भी प्रखर वक्ता के रूप में उभर सकता है । सच्चा गुरु वह होता है जो आपके अंदर छिपी हुई अद्भुत शक्ति से आपको परिचित करवा कर उनका सद्उपयोग करना सिखा दें ।
नोट - अपने दाहिने हाथ से गुरु का दाहिना चरण और बायें हाथ से उनका बायाँ चरण पकड़कर प्रणाम करना चाहिये । गुरु को एक हाथ से कभी प्रणाम नहीं करना चाहिये ।
गुरु बनाने के लाभ-
गुरु बनाने से हमें आध्यात्मिक सुख और प्रगति दोनों ही रास्ते पर चलने का सही रास्ता मिल सकता है क्योंकि बिना गुरु के अध्यात्म के पद पर आप सफल नहीं हो सकते। गुरु हमें उलझने का मार्ग नहीं बल्कि सुल्झने का मार्ग का सही रास्ता दिखाता है वह हमारा आत्म बल और आत्म शक्ति दोनों को एक साथ गुरु ही प्रदान कर सकता है।
गुरु का हमारे जीवन में उसे प्रकार महत्व है जैसे कुम्हार का घड़ा बनाने का महत्व होता है। जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को तोड़ मरोड कर और मथ कर उसका एक घड़े का रूप दे सकता है उसी प्रकार हमारा गुरु हमें सही मार्गदर्शन और सही रास्ता दिखा सकता है। गुरु बनाने से पहले अपने गुरु पर विश्वास होना अति जरूरी है अगर आपका विश्वास डगमगा रहा है तो फिर आप इसमें सफल नहीं हो सकते। पहले अपने गुरु पर विश्वास करें तभी किसी गुरु से आप जुड़े।
दुनिया में जितने भी संत महात्मा हुए हैं उनके सबके पहले कोई ना कोई गुरु बने हैं तब जाकर वह कोई संत बने हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की हर वह बात मानी जो उनके लिए काफी कष्टदायक थी, पर गुरु को पता था इसको कषट देना बहुत जरूरी है। इसलिए गुरु अपने शिष्यों की परीक्षा अवश्य लेते हैं इसलिए जब भी गुरु बनाने वाले रास्ते पर चलें तो तन मन धन से हर तरह की तैयारी करके ही चले । तभी आपको सफलता मिल सकती है क्योंकि गुरु भी भगवान की तरह परीक्षा जरूर लेता है।
* गुरु से दीक्षा लेने का महत्व-
गुरु से दीक्षा लेने का इसलिए विशेष बताया गया है क्योंकि कोई भी पूजा पाठ जब बिना गुरु के निष्फल माना जाता है सबसे पहले साधना में दीक्षा का होना बहुत जरूरी है। दीक्षा का अर्थ यानी कि मनुष्य को दिव्य ज्ञान प्रदान कर उसके सभी प्रकार के पापों का नाश कर देती है।
यह सिर्फ एक ऋषि मुनियों द्वारा बनाई गई नामकरण विधि है। इसे हर व्यक्ति को अपने गुरु के अनुसार करना चाहिए।
धरती पर सब कुछ दीक्षा मुल्क है।
बिना दीक्षा के जगत संसार में कोई भी संपन्न नहीं हो सकता। जब तपस्या आदि सब इसका आधार है दीक्षा प्राप्त कर लेने पर इंसान चाहे आश्रम में रहे या घर में उसके सब काम सिद्द हो जाते हैं। जब दीक्षा प्राप्त किए बिना जो मनुष्य जप पूजा करता रहता है वह सब कर्म बंजर जमीन में बोये हुए बीज के समान वयर्थ सिद्ध होते हैं। बिना दीक्षा वाले इंसान को सिद्धी अथवा सद्गगति नहीं मिलती। इसलिये सबसे पहले प्रार्थना करके गुरु द्वारा आवश्यक मंत्र दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
गुरु से दीक्षा लेने से पहले यह परख करनी बहुत जरूरी है कि आपको गुरु दीक्षा देने वाला गुरु खुद योग्य और शुद्ध चरित्र वाला हो ।आजकल के इस कलयुग के इस दौर में ढोंगी और स्वार्थी गुरु को बहुत भरमार है । ऐसे गुरुओं से तो बिना गुरु के रहना ही अच्छा है।
अध्यात्म मार्ग में गुरु के सहारे शिक्षक को बहुत सहायता मिलती रहती है।
सद्गुरु अपने शिक्षकों को भी अपने शक्ति द्वारा अवसर प्राप्त करने के मुक्ति का प्रतीक बना देते हैं, इसलिए शास्त्रों में कहा गया है के गुरु का स्थान भगवान से भी पहले आता है।
Posted by- kiran
0 टिप्पणियाँ