चाणक्य नीति के श्लोको के अनुसार गुरु और ज्ञान की महिमा | चाणक्य नीति के गुरु और ज्ञान श्लोक अर्थ सहित |

गुरु और ज्ञान का महत्व  चाणक्य नीति के अनुसार - चाणक्य नीति के अनुसार प्रत्येक मानव अपने जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है और उसकी इच्छा होती है कि उसके घर में सुख शांति समृद्धि धन वैभव की देवी लक्ष्मी जी की सदैव कृपा बनी रहे। आईए जानते हैं आज इस आर्टिकल के माध्यम से बहुत ही महत्वपूर्ण श्लोक अर्थ सहित जो सिर्फ गुरु और ज्ञान के महत्व के बारे में आपको अर्थ  सहित पूरी जानकारी देने की कोशिश करेंगे क्योंकि गुरू और  ज्ञान जिंदगी में कितना महत्व है। 

 चाणक्य नीति श्लोक अर्थ सहित-

गुअग्निद्विजतिना वर्णना ब्राह्मणों गुरु । पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याऽभ्यागते गुरु ॥

अर्थ ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य इन सबका गुरु इष्ट देव अग्नि है और ब्राह्मण सब जातियों का गुरु है वह पूज्य भी है । 

नारियों का गुरु उनका पति होता है । अभ्यागत् सबका गुरु होता है । अभ्यागत ऐसा गुरु होता है जो अचानक ही घर में आ जाता है । वह स्वार्थी नहीं होते वह तो जिसके पास मानता हूँ । जाता है उसी का कल्याण चाहता है । ऐसे मानव को मैं ( चाणक्य ) श्रेष्ठ मानता हूं


 श्रेष्ठ यथा चतुर्भिः उनके परीक्ष्यते निधर्षण च्छेदन ताप ताड़नैः । तथा चतुर्भि पुरुष परीक्ष्मते त्योगन शीलेन गुणेन कर्मणा ॥ 

अर्थ :- सोने की पहचान कौन करता है और कैसे यह पहचान की जा सकती है । उसे कसौटी पर घिसा जाता है , आग में डाल कर पिघलाया जाता है । तभी जाकर पता चलता है कि असली सोना है या नकली । 

ठीक इसी प्रकार ऐसे हम किसी मानव के बारे में जानने के लिये चार प्रकार से उसकी जांच करते हैं ? 


1. त्याग ,

 2. शील , 

3. गुण ,

 4. उसने जितने भी काम किए हों उनकी समीक्षा । अच्छे लोगों की पहचान इस प्रकार से की जाती है- उसके गुण कैसे हैं , उसका ज्ञान कितना है , बुद्धि कैसी है , समाज में उसका चरित्र कैसा है ? श्रेष्ठ व्यक्ति अपने गुणों के आधार पर ही पहचाने जाते हैं ।


 * ताषद् भर्यषु भेतव्यं यावह भय मानगतम् । अगतं तुः भय वीक्ष्य प्रहर्तव्थम शंक्यो ।

अर्थ- 

 किसी ज्ञानी को बिना किसी डर के सामने आने से पहले ही उसके नाम से ही घबराना नहीं चाहिये । यदि डर को जाने बिना ही डर कर बैठ जाते हैं तो अज्ञान है । ज्ञानी के लिये यह जरूरी होता है कि पहले उस डर

को जाने उसके आने का कारण पूछे फिर उसे डर को दूर करने का कोई रास्ता और  अपनी बुद्धि द्वारा निकाले ।  कई बार ऐसा भी होता है कि हम उस अनजाने डर से कांप रहे हैं । यह डर हमारी बुद्धि के सामने आते ही भाग जाए यह तभी संभव होगा जब हम अपने आप में आत्मिक शक्ति का अनुभव करेंगे । इस संसार में हर संकट का उपचार है फिर आप क्यों घबरा रहे हैं । 


* एकोदरसभुद्भूताः एकनक्षत्रजातकाः  न भवन्ति समाः शीले यथा बहरि कंटकाः ॥

अर्थ-

 एक ही समय एक ही मां की कोख से जन्म लेने वाले बच्चे भी कभी एक स्वाभाविक नहीं होते । आपने उन वन के वृक्षों को भी देखा होगा जिनमें मोठे और स्वादिष्ट बेर लगते हैं परन्तु उनके साथ ही कांटे भी तो होते हैं । एक ही टहनी पर पैदा होने वाले बेर और कांटों के स्वभाव में में चुभते ही दर्द पैदा करती है । कितना अंतर होता है । 

एक आनन्द से खाया जाता है दूसरे की नोक शरीर अब यह बात तो स्पष्ट है कि एक ही वृक्ष पर लगने वाले यह बेर और कांटे एक स्वभाव के नहीं होते । एक मां की कोख से जन्म लेने वाले बच्चे एक स्वभाव के नहीं होते । यह तो प्रभु की विचित्र लीला है । इस पर मानव का कोई अधिकार नहीं जो लोग प्रभु की इस शक्ति को नहीं समझते वे अज्ञानी होते हैं । ऐसे लोग जीवन के सच्चे सुख से वंचित रहते हैं और जो लोग इस ज्ञान को समझ लेते हैं वे सदा सुखी रहते हैं । प्रभु एक महाशक्ति है उसी ने फूल बनाए उसी ने कांटे ।


* निःस्पृहो नांऽधिकारी स्यान्नाकामी मंडनप्रिय । नाऽविदग्धः प्रियथं क्रूयात् स्पष्ट वकतानवंचक ॥ 

अर्थ- 

जो लोग उस पद के पीछे भागना उचित नहीं समझते जिसकी उन्हें अभिलाशा ही नहीं ऐसे लोगों को अपने कपड़ों तथा मानव श्रृंगार की भी कोई चिंता नहीं रहती । जो लोग मूर्ख होते हैं वे कभी मधुर भाषी नहीं होते । जो लोग साफ बात मुंह पर रहते हैं वह कभी धोखेबाज झूठे नहीं होते ऐसे ही प्राणी सुख को प्राप्त करते हैं क्योंकि वह कभी किसी का बुरा नहीं करते।


मूर्खाणां पंडिता द्वेषया अधनानां महाधनाः । वारांगनाः कुलस्त्रीणां सुभगानां चदुर्भागं ॥ 


अर्थ : -यह बात तो अब एक रीत सी बन गई है कि मूर्ख ( अज्ञानी ) लोग पंडितों ( ज्ञानियों ) से नफरत करते हैं जो लोग गरीब हैं वे धन वालों को देख कर जलते हैं । बाजारी औरतें वेश्याएं पतिव्रता धर्म निभाने वाली नारियों को तथा सुहागिनों को देख विधवाओं के मन में इर्ष्या की आग सुलगने लगती है । परन्तु मेरे विचार में तो पंडित लोग मूर्खों की और धनी लोग निर्धनों की और धन निर्धनों की पतिव्रता नारियों , वैश्याओं को सुहागिनों विधवाओं की उपेक्षा करें ।  

* अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुल शीलने धार्यते । गुणेन ज्ञायते त्वार्थ : कीवो नेत्रेण गम्यतेः ॥

अर्थ- 

यदि आप निरंतर अभ्यास करेंगे तो ही तो विद्या की रक्षा होगी जो लोग सदाचारी हैं वही अपने कुल का नाम रोशन करते हैं । जो लोग गुणवान हैं उनके गुणों से ही उनके वंश का पता चलता है । नेत्रों से आप मानव क्रोध को जान सकते हैं । जो लोग अभ्यास नहीं कर पाते उनकी विद्या अधूरी पड़ी रहती है । और विद्या के बिना आदमी में वह शक्ति ही नहीं पैदा हो पाती यह बात तो सत्य है कि विद्या अभ्यास के बिना जहर से कम नहीं।

किसी के वंश को जानने के लिये धन सम्पत्ति की कसौटी नहीं माना जा सकता बल्कि शील ही श्रेष्ठता होती है। यदि धनवान आदमी चरित्रहीन है तो समाज में उसे कोई श्रेष्ठ नहीं माना जाएगा । अपने आपको आर्य कहने से कोई विद्वान नहीं बन सकता।

 यदि कोई महान् बनेगा तो अपनी बुद्धि और परिश्रम के सहारे ही महान् बनेगा । इस तरह से विद्या की रक्षा करना कुल के गौरव की रक्षा करना शील की रक्षा उपेक्षित है । गुणों से ही व्यक्ति की बुद्धि का पता चलता है । उन नेत्रों से मन की स्थिति का पता चलता है ।


* वितेन रक्ष्यते धर्मो योगेन रक्ष्यते । मृदुना रक्ष्यते भूपं सन्नार्या रक्ष्यते गृहम् ॥

 अर्थ : इस श्लोक में आचार्य जी कहते हैं कि धर्म की रक्षा तो धन द्वारा की जा सकती है । विद्या की रक्षा का साधन निरंतर अभ्यास है । राजनीति की रक्षा के लिये आपके व्यवहार दया कोमलता भाषा में मिठास होनी चाहिए । गृहस्थी की रक्षा के लिये घर में एक भली बुद्धिमान नारी का होना जरूरी है । धन के द्वारा ही हम धर्म कर्म की रक्षा कर सकते हैं । धर्म का पालन उसकी रक्षा तीर्थ यात्रा यज्ञ इन सब के लिये ही तो धन की आवश्यकता है ।

 योग का अर्थ कर्म निधान में कौशल हैं यदि कोई विद्वान व्यक्ति सभ्यता और व्यवहार में सम्पूर्ण नहीं है तो वह जीवन में सुख पाने से भी वंचित रह जाएगा । मैं सब इन्सानों की भलाई के लिये यह बात कहता हूं कि धर्म पालन के लिये धन की विद्या के लिये अभ्यास की राजा , की लोकप्रियता को बनाए रखने के लिये प्रजा से प्रेम और उसके हितों की रक्षा जरूरी है । 


 *अन्यथा वेद पांडित्यं शास्त्रमा माचारम यथा । अन्यथा वहतः शान्तानुविलश्यन्ति चान्यथा ॥

अर्थ- वेदों के तत्वज्ञान की शास्त्रों के विधान को तथा ज्ञानियों एवं संतों की वाणी को सत्य न मानने वाले लोग सीधे नरक लोक में जाते हैं । जो ज्ञान युगों की तपस्या और वर्षों की भक्ति के पश्चात् इन लोगों ने प्राप्त किया है । उसका लाभ न उठाने वालों को हम अज्ञानी ही तो कह सकते हैं । 


दरिद्रयनाशनं दान दुर्गति नाशनमाः । अज्ञान नाशिनी प्रज्ञां भावना भयनाशिनी ॥

अर्थ- चाणक्य जी इस श्लोक में कहते हैं कि दान देने से दरिद्रता का नाश होता है । उत्तम तीव्र बुद्धि से अज्ञानता दूर हो जाती है । सद्भाव से डर समाप्त होता है । दान तो बहुत लोग करते हैं धनवानों का दान तो खेल समझा जाता है परन्तु यदि आप अपनी दो रोटी में से एक रोटी किसी भूखे को दान स्वरूप दे देते हैं तो ऐसा दान बहुत ही उपयोगी माना जाता है ।

प्रभु भी इससे प्रसन्न होते हैं । यदि कोई निर्धन इस प्रकार का दान देता है । तो प्रभु उसकी दरिद्रता को स्वयं दूर कर देते हैं । भय क्या है ? मात्र एक अज्ञान है । यदि आप ज्ञान की शक्ति रखते हैं तो यह भय आपके पास कहाँ ठहर पाएगा ज्ञान से बड़ी शक्ति और कोई नहीं तुम्हारा धन चोरी हो सकता है मगर ज्ञान कौन चोरी करेगा ? कोई नहीं , धन को तो कोई चुरा सकता है परन्तु ज्ञान नहीं । 

नास्ति कामसमो व्यथिर्वास्ति मोहसभोरिषुः । नास्ति कोपसभी वहिमर्नारत्तज्ञानात्वरंशुखम् ॥ 


अर्थ-यदि कोई मुझ से पूछे कि इस संसार का सबसे बड़ा रोग कौन - सा है ? तो मेरा उत्तर होगा कि काम वासना इस संसार में सबसे बड़ा रोग है । यह एक ऐसा रोग है जो मानव शरीर को अंदर ही अंदर दीमक की भांति चाट जाता है । मानव के दूसरे शत्रु का नाम है मोह क्रोध से भयंकर कोई दूसरी आग नहीं जो मानव शरीर को अंदर ही अंदर जलाती रहती है परन्तु इन्सान को उसका पता तक नहीं चलता । ज्ञान ही एक मात्र ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा हम इन सब शत्रुओं से मुक्ति पा सकते हैं ।


* तृणं ब्रह्माविद स्वर्ग स्तृणं शूरस्थ जीवितम् । जितांऽक्षस्य तृणं नारी निःसूहस्य तृणांजगत ॥ 

अर्थ :-  जिस इन्सान के पास ज्ञान की शक्ति है उसके लिये स्वर्ग की कोई विशेषता नहीं क्योंकि उसे इस बात का पूरा ज्ञान होता है कि स्वर्ग के सुख दुःख क्या होते हैं । बहादुर और वीर मानव के लिये मोह नाम की कोई चीज नहीं है । क्योंकि यदि कोई वीर जीवन से मोह करने लगेगा तो युद्ध कौन करेगा ।

 जिन लोगों ने इन्द्रियों को बस में कर लिया हो उनके लिये जीवन से मोह की विशेषता नहीं है । जो लोग ज्ञानी हैं , बुद्धिमान हैं । उनके लिये इस संसार के सारे खजाने व्यर्थ हैं । धन से ज्ञान की तुलना करते समय वे ज्ञान की ही विजय समझते हैं ।


* विद्या मित्रं प्रवासेषु यार्यमित्र गृहेषुच । व्याथित स्यौषधं मित्रं धर्मामित्रं मृत्तस्य चं ॥

अर्थ- जो लोग घर से बहुत दूर परदेस में चले जाते हैं , वहां पर उनका कोई न भी हो तो उनकी यह शिक्षा तो उनके साथ सच्चे साथी की भांति रहती है । जब परिवार में लड़ाई झगड़े तथा बंटवारे होने के कारण एक - एक करके सब लोग साथ छोड़ जाते हैं तो ऐसे अवसर पर केवल पत्नी ही साथ देती है । 

* वृथा वृष्टि समोद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनमः । नृथा वानं धनाढ्येषु वृथाः दीपोहिवाऽपिच ॥ 

अर्थ- सागर में यदि बादल बरसेंगे तो उनका क्या लाभ होगा ? जिसका पेट पहले से यज्ञ ही उसे भोजन करवाना व्यर्थ है । जिसके पास पहले से ही धन भरा पड़ा हो उसे दान देने का कोई लाभ नहीं । वर्षा की जरूरत तो सूखे खेतों को होती है । भोजन का आनन्द तो कोई भूखा व्यक्ति ही ले सकता है । दान का पुण्य उसी समय मिलेगा यदि आप किसी निर्धन को देंगे । 


* नास्ति मेवसमं तीये नास्ति चात्मरामं बलम् । नास्ति चक्षुः समंतेजीः नास्ति धान्यक्षमंक्षियुम् ॥ 

 अर्थ- सबसे पवित्र पानी वही होता है जो बादलों से बरसता है । सबसे बड़ा बल आत्म बल है इससे बड़ा कोई और बल नहीं है अन्न से बढ़ कर कोई दूसरा खाद्य पदार्थ नहीं । ज्ञानी जन सदा इस शिक्षा को याद रखते हैं । 


*अधना धनमिछन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः । अर्थ मानवा स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षभछन्ति देवताः ॥


अर्थ- जो गरीब लोग हैं वे तो हर समय धन की आस लगाए बैठे रहते हैं । और पशु चाहते हैं कि वे बोल कर बातें करें । हर मानव स्वर्ग लोक की आशा लगाए बैठा है । इस संसार का यह नियम है कि जो कुछ किसी के पास नहीं होता उसी की आशा लगाकर वे बैठे रहते हैं । यह जीवन एक आशा ही तो है । हर प्राणी अपने लिये कोई न कोई कमी महसूस करता है । जो कुछ उनके पास है उसे तो वे भूल जाते हैं जो नहीं है उसके लिये दीवाने होकर घूमते हैं । सब्र तो कहीं नहीं , ऐसा क्यों ?


*सत्यंन धावंत पृथिवीं सत्येन तपते ' रवि । सत्येन बाति वायुरच सर्वं सत्योप्रतिष्ठ तम् ॥ 


अर्थ- चाणक्य जी ने इस श्लोक में सत्य की शक्ति पर बल देते हुए सबसे पहले इस संसार ( पृथ्वी ) की ओर इशारा करते हुए कहा है कि इस सत्य का सबसे बड़ा प्रमाण तो पृथ्वी के रूप में हमें नजर आ रहा है । जरा कल्पना करो कि यह महान पृथ्वी किस शक्ति के सहारे टिकी हुई है । इस हजारों लाखों कोस की दूरी से आने वाले सूर्य के प्रकाश को देख कर आपकी उस सत्य की शक्ति को मान नहीं होगा।

 मैं ( चाणक्य ) आप सबको यह बताना चाहता हूं कि यह सब कुछ उस महाशक्ति की ही देन है जिसे हम प्रभु कहते हैं ।


 चला लक्ष्मी स्वलाः प्राजाश्चले जीवित मन्दिरे । चलांऽचले हिः संसारे धर्म एको हि निश्चय ॥

अर्थ-

 इस विश्व में लक्ष्मी स्थिर है परन्तु जीवन स्थिर नहीं है । यह घर बार सगे सम्बंधियों सब के सब एक न एक दिन जाने वाले हैं । यह पूरा संसार नाशवान है इस संसार का रचयिता एक तो प्रभु है । अविनाशी भगवन् संसार को स्वयं मिटाते हैं स्वयं ही इसकी रचना करते हैं । वही एक धर्म है वही ईश्वर है । आप सबका यह कर्तव्य है कि उस प्रभु को सदा याद रखें । 


*नाराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैष वायस । अर्थ : चतुष्पदां भृगालस्तु स्त्राणां धूर्ताय मालिनी ॥

अर्थ-

 इन्सानों में नाई , पक्षियों में कौआ , पशुओं में गीदड़ और औरतों में मलिन को पतित माना गया है । ये चारों के चारों बिना किसी कारण के काम खराब करने के लिये तैयार रहते हैं । काम बिगाड़ने में इन्हें अधिक देर नहीं लगती । 


 *जनिता चोपनेताः च यस्तु विद्याप्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता पंचैते पितर स्मृता ॥

अर्थ-  मानव को जन्म देने वाला यज्ञोपवीत संस्कार करने वाला तथा पुरोहित शिक्षा देने वाला । आचार्य भय से मुक्ति दिलाने वाला अथवा रक्षा ये सब पांचों के पांचों पित के समान माने जाते हैं । आप सबका यह कर्त्तव्य है कि इनकी आज्ञा पिता के आदेश समझ कर ही मानें । 

 * राज पत्नी , गुरु की पत्नी , मित्र पत्नी तथैव च । पत्नी माता , स्वमाता च पंचीता मातृः समूला ॥ 

 अर्थ- राजा की पत्नी , गुरु की पत्नी , मित्र की पत्नी , पत्नी की मां इन सब को अपनी मां के समान समझ कर ही पूजा करें । इनके बारे में कभी भी बुरे विचार अपने मन में न आने दें । यही बुद्धिमान लोगों का फर्ज है ।

Disclaimer- यह सब कुछ चाणकय शाश्त्र के अनुसार लिखा गया है  ।इसमें हमारा खुद को कोई योगदान नहीं है


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