सभी देवी-देवताओं की सही पूजन विधि | संकल्प, आह्वान और षोडशोपचार


सभी देवी-देवताओं की सम्पूर्ण पूजन विधि

परिचय

हिंदू धर्म में देवी-देवताओं की पूजा का विशेष महत्व है। पूजा केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि साधक और भगवान के बीच आत्मिक संबंध का माध्यम है। जब हम श्रद्धा और नियमपूर्वक पूजा करते हैं तो हमें मानसिक शांति, सकारात्मक ऊर्जा और दिव्य आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसीलिए शास्त्रों में पूजा-विधि का बड़ा महत्व बताया गया है। यहाँ सभी देवी-देवताओं की सम्पूर्ण पूजन-विधि को क्रमबद्ध और सरल रूप में प्रस्तुत किया गया है।


प्रारम्भिक तैयारी

पूजा आरंभ करने से पहले स्वयं की और वातावरण की शुद्धि करना आवश्यक है। सबसे पहले स्नान करें और साफ़-सुथरे वस्त्र पहनें। ध्यान रखें कि पूजा में चमड़े की कोई भी वस्तु का प्रयोग न हो। शुद्ध आसन पर बैठें और अपना मुख उत्तर या पूर्व दिशा की ओर रखें। आसन की शुद्धि करें और धरती माता को प्रणाम करें। इसके बाद इष्टदेव और पितरों का स्मरण करें, तीन बार आचमन करें और हाथ धो लें। जलपात्र (कर्मपात्र) की पूजा करें और उसी जल से पूजा सामग्री की शुद्धि करें। अंत में पीली सरसों से दसों दिशाओं में छिड़काव करें ताकि सभी प्रकार की बाधाएँ दूर हों और तिलक लगाएँ।


दीप एवं धूप की स्थापना

पूजा स्थल पर दीपक और धूप का विशेष महत्व है। देव प्रतिमा के दाहिने ओर घी का दीपक तथा बाएँ ओर तेल का दीपक रखें। दीपकों को अक्षत (चावल) के ऊपर रखें और उन्हें प्रज्वलित करें। विषम संख्या में अगरबत्ती या धूप जलाएँ। इसके बाद उच्च स्वर में मंत्रों के साथ दीप प्रार्थना करें जिससे वातावरण शुद्ध और पवित्र हो जाए।


संकल्प और आह्वान

अब हाथ धोकर स्वस्तिवाचन और मंगल पाठ करें। दाहिने हाथ में जल, चंदन, अक्षत, फूल और दक्षिणा लेकर संकल्प करें कि किस देवी या देवता की पूजा की जा रही है और किस उद्देश्य से। संकल्प के बाद न्यास करें और गणेश जी की स्तुति करें क्योंकि गणपति प्रथम पूज्य हैं। फिर जिस देवी या देवता की विशेष पूजा करनी हो, उनका ध्यान और प्रार्थना करें। मंत्रोच्चारण करते हुए देवताओं का आह्वान करें।


षोडशोपचार पूजन क्रम

पूजा में सबसे व्यापक और पूर्ण विधि षोडशोपचार पूजन है जिसमें 16 प्रकार की सेवाएँ अर्पित की जाती हैं।

देवता को आसन अर्पण करें।

पाद्य (पैर धोने हेतु जल), अर्घ्य (हाथ धोने हेतु जल) और आचमन कराएँ।

देव प्रतिमा को स्नान कराएँ – दूध, दही, घी, शहद, शक्कर और गंगाजल से क्रमशः।

वस्त्र और उपवस्त्र पहनाएँ, यज्ञोपवीत अर्पण करें।

चन्दन, अक्षत, पुष्प और पुष्पमाला चढ़ाएँ।

दुर्वा, शमी पत्र, बेलपत्र आदि देव विशेष के अनुसार अर्पित करें।

गंध, सिंदूर और इत्र अर्पित करें।

धूप और दीप दिखाएँ।

नैवेद्य अर्पण करें जिसमें फल, मिष्ठान और जल सम्मिलित हों।

अंत में ताम्बूल, सुपारी, नारियल और दक्षिणा अर्पित करें।

पूजा के अंत में विशेष अर्घ्य अर्पण करें और आरती करें। पुष्पांजलि अर्पित करके प्रदक्षिणा करें और प्रार्थना करें कि पूजा का फल भगवान को समर्पित हो। पूजा पूर्ण होने पर आसन के नीचे एक बूंद जल डालकर उसे माथे से लगाएँ। मान्यता है कि इससे पूजा का फल अक्षुण्ण रहता है और इन्द्र देव भी उसे अपने पास नहीं ले जाते।


पूजा के भेद

पंचोपचार पूजा – गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।

दशोपचार पूजा – पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।

षोडशोपचार पूजा – 16 विधियों सहित विस्तृत पूजन क्रम।

पंचोपचार पूजा में पाँच उपचार सम्मिलित होते हैं— गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य। इनका अर्पण करके अंत में प्रार्थना की जाती है।

दशोपचार पूजा में दस उपचार होते हैं। इसमें क्रमशः— पाद्य (जल समर्पण), आर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और प्रार्थना शामिल हैं।

षोडशोपचार पूजन अधिक विस्तृत है और इसमें सोलह से अधिक उपचार किए जाते हैं। इसमें सर्वप्रथम आसन अर्पण किया जाता है, फिर पाद्य, आचमन, स्नान और पंचामृत स्नान (दूध, दही, घृत, मधु और शर्करा से) कराया जाता है। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान, यज्ञोपवीत, गन्ध, इत्र, कुकुम, रक्तचन्दन, अक्षत, पुष्प, माला, बिल्वपत्र, दूर्वा, धूप, दीप, नैवेद्य और आचमन कराए जाते हैं। इसके साथ ही मोदक, पूंगीफल, तांबूल, ऋतुफल, दक्षिणा आदि समर्पित किए जाते हैं। अंत में आरती और पुष्पांजलि अर्पित कर पूजा सम्पन्न की जाती है।

मानस पूजा का महत्व

 शास्त्रों में सबसे अधिक बताया गया है। कहा गया है कि यदि कोई भक्त मन से एक फूल भी अर्पित करता है, तो वह करोड़ों बाहरी फूल अर्पण करने के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार, मानसिक रूप से अर्पित चन्दन, धूप, दीप और नैवेद्य भगवान को अनंत संतोष प्रदान करते हैं। वस्तुतः भगवान को किसी भौतिक वस्तु की आवश्यकता नहीं होती, वे तो केवल भाव के भूखे हैं।

मानस पूजा में भक्त अपने इष्टदेव को दिव्य स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान कराता है। वह उन्हें मन्दाकिनी गंगा के जल से स्नान कराता है, कामधेनु के दुग्ध से पंचामृत तैयार करता है और दिव्य वस्त्र एवं आभूषण पहनाता है। पृथ्वी को गन्ध स्वरूप, कुबेर की पुष्पवाटिका के स्वर्णकमल को पुष्प स्वरूप, वायु को धूप स्वरूप, अग्नि को दीप स्वरूप और अमृत को नैवेद्य स्वरूप मानकर भगवान को अर्पित करता है।

अंततः भक्त अपने हृदय की गहन भावना से सम्पूर्ण त्रिलोक की वस्तुएँ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है। यही है मानस पूजा का स्वरूप, जो प्रत्येक पूजा को हजारगुना अधिक फलदायी और श्रेष्ठ बना देता है।


मानसपूजा का महत्व

शास्त्रों में बताया गया है कि पूजा को हजारों गुना अधिक फलदायी बनाने का उपाय मानसपूजा है। इसमें बाहरी वस्तुओं की अपेक्षा भाव और भावना का महत्व है। जब भक्त अपने इष्टदेव को मन में दिव्य वस्तुएँ अर्पित करता है, तो वह करोड़ों बाहरी अर्पण के समान फल देता है।

मानसपूजा के लिए शास्त्रों में कुछ विशेष मन्त्र बताए गए हैं—

ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि।

(हे प्रभु! मैं पृथ्वी रूप गन्ध— चन्दन— आपको अर्पित करता हूँ।)

ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि।

(हे प्रभु! मैं आकाश रूप पुष्प आपको अर्पित करता हूँ।)

ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि।

(हे प्रभु! मैं वायु रूप धूप आपको अर्पित करता हूँ।)

ॐ रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि।

(हे प्रभु! मैं अग्नि रूप दीप आपको अर्पित करता हूँ।)

ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि।

(हे प्रभु! मैं अमृत रूप नैवेद्य आपको निवेदन करता हूँ।)

ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि।

(हे प्रभु! मैं सम्पूर्ण संसार के सभी उपचार आपके चरणों में समर्पित करता हूँ।)

मानसपूजा का महत्व और अनुभव

मानस पूजा में जितना समय साधक लगाता है, उतना समय वह भगवान के सान्निध्य में व्यतीत करता है। उस समय संसार की सारी हलचल और विक्षेप उससे दूर हट जाते हैं। भक्त अपने आराध्य देव के लिए रत्नजड़ित सिंहासन, सुगंधित पुष्पों की वर्षा और दिव्य आभूषणों की कल्पना करता है। उसका मन इन वस्तुओं को जुटाने के लिए इन्द्रलोक से लेकर ब्रह्मलोक तक दौड़ लगाता है और अप्राकृतिक लोकों तक की यात्रा करने से भी पीछे नहीं हटता। यह सब केवल इस भाव से कि भगवान को श्रेष्ठ से श्रेष्ठ अर्पण कर सके।

जब भक्त इस मानसिक साधना से जुटाए गए दिव्य वस्त्र, गहने, मालाएँ, धूप-दीप और नैवेद्य अपने भगवान के चरणों में समर्पित करता है, तो उसके मन में अवर्णनीय संतोष का अनुभव होता है। यही संतोष उसे धीरे-धीरे समाधि की ओर अग्रसर करता है और रसास्वादन का अनोखा अनुभव कराता है।

मानसपूजा का यह स्वरूप प्रेममयी भक्ति जैसा है। जैसे कोई प्रेमी भक्त अपने इष्टदेव को प्रियतम मानकर मन ही मन जूही, चमेली, चम्पा, गुलाब और बेला की ताज़ी मालाएँ अर्पित करता है। बाहरी पूजा में इन्हें जुटाने के लिए बहुत परिश्रम और खर्च की आवश्यकता होती है, परंतु मानसपूजा में न तो कठिनाई आती है और न ही आराध्य से बना मधुर संबंध टूटता है। बल्कि यह संबंध और गहरा व स्थायी हो जाता है।

जब मन की कोमल भावनाओं से रची गई पुष्पमालाएँ भगवान को अर्पित की जाती हैं और उनकी सुरभि प्रियतम की श्वास से मिलती है, तो साधक के रोम-रोम में एक मधुर मादकता छा जाती है। भगवान के स्पर्श की अनुभूति से वह स्वयं को भुला बैठता है। उस क्षण न साधक शेष रहता है, न आराध्य और न ही पूजा की औपचारिकता। केवल अद्वैत आनन्द की स्थिति शेष रह जाती है।

धन्य हैं वे साधक, जिनकी पूजा इस भावावस्था में अधूरी रह जाती है, क्योंकि वही अधूरी पूजा वास्तव में पूर्णता का अनुभव कराती है। मानसपूजा साधक को इतनी शीघ्रता से इस स्थिति तक पहुँचा देती है।


निष्कर्ष-

देवी-देवताओं की पूजा केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि साधक और ईश्वर के बीच आत्मिक संवाद का साधन है। जब श्रद्धा, नियम और शुद्ध भावना के साथ पूजा की जाती है, तो साधक को मानसिक शांति, आध्यात्मिक संतोष और दिव्य आशीर्वाद प्राप्त होता है।

षोडशोपचार, दशोपचार और पंचोपचार पूजन जैसी बाहरी विधियाँ पूजा को पूर्णता देती हैं, वहीं मानसपूजा इसे हजारों गुना फलदायी बना देती है। क्योंकि भगवान वस्त्र, आभूषण या भोग से प्रसन्न नहीं होते, बल्कि केवल भाव से ही तृप्त होते हैं।

इसलिए पूजा का वास्तविक उद्देश्य केवल क्रियाकलापों का पालन करना नहीं, बल्कि अपने मन को भक्ति और समर्पण की भावना से भरना है। जब भक्त अपनी आंतरिक श्रद्धा से भगवान को अर्पित करता है, तो वही पूजा सर्वोत्तम और सफल होती है।

👉 सार यह है कि पूजा का सबसे बड़ा रहस्य भावना और समर्पण है। यदि भाव शुद्ध है, तो साधारण पूजा भी महान फल देती है; और यदि भाव शून्य है, तो भव्य पूजा भी अधूरी रह जाती है।





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