आयुर्वेद बनाम प्राकृतिक चिकित्सा: क्या है बेहतर स्वास्थ्य का रास्ता ?


प्राकृतिक चिकित्सा एवं आयुर्वेद चिकित्सा मे अन्तर और समानता-

भुमिका- 

भारतवर्ष की सांस्कृतिक धरोहर में चिकित्सा पद्धतियों का विशेष स्थान रहा है। यहां की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धतियाँ – प्राकृतिक चिकित्साऔर आयुर्वेद – केवल रोगों का उपचार भर नहीं करतीं, बल्कि वे जीवन जीने की समग्र शैली सिखाती हैं। इनका आधार शरीर, मन और आत्मा की संतुलित एकता पर है। आधुनिक जीवनशैली में बढ़ते तनाव, गलत खानपान और असंयमित दिनचर्या से उपजे रोगों का समाधान इन पारंपरिक पद्धतियों में बखूबी मिलता है।

जहाँ प्राकृतिक चिकित्सा का मूल आधार पंचमहाभूतों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – का संतुलन है, वहीं आयुर्वेद भी इन्हीं सिद्धांतों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाते हुए शरीर और मन की गहराइयों तक जाकर उपचार करता है। दोनों पद्धतियाँ हमें यह सिखाती हैं कि रोग से लड़ने के लिए दवाओं से अधिक जरूरी है – जीवनशैली में सुधार और प्रकृति के नियमों का पालन।

इस लेख में हम प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेदिक चिकित्सा की समानताओं, उनके सिद्धांतों और उपचार के तरीकों पर विस्तृत चर्चा करेंगे, जिससे स्पष्ट हो सके कि ये दोनों पद्धतियाँ वास्तव में एक ही दर्शन की दो शाखाएं हैं।

ये दोनों चिकित्सा पद्धतियाँ हमारी संस्कृति की देन हैं।

 ये विशुद्ध, अपौरुषेय, अनादि एवं अनन्त हैं। प्राकृतिक चिकित्सा प्रकृति के साथ उत्पन्न हुई। प्राकृतिक चिकित्सा का लाभ प्रकृति शुरू होने के साथ ही सब प्राणी, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि लेते हैं। इस पद्धति के लिए विशेष किन्हीं साधनों की आवश्यकता नहीं होती है। बल्कि केवल इस पद्धति के मूल सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाए तो चिकित्सा की जा सकती है।

आयुर्वेद भी पुरानी एवं भारतीय पद्धति है। इस पद्धति के भी लगभग वही सिद्धान्त हैं जिन्हें प्राकृतिक चिकित्सा मानती है। आयुर्वेद का अर्थ है - आयु और उस का वेद (ज्ञान)। यह शाश्वत् है। चेतन पदार्थ में जब तक चेतना का अनुबन्ध रहता है उस अवधि को आयु कहते हैं। शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा का संयोग ही आयु है।

इस आयु सम्बन्धी प्रत्येक ज्ञान को आयुर्वेद कहते हैं। सत्व, आत्मा और शरीर के संयोग को ही पुमान (पुरुष) कहते हैं, वही सत्व, आत्मा और शरीर युक्त चेतन है, यही मिलित रूप से आयुर्वेद का अधिकरण (चिकित्सा का विषय) है।

जिस ग्रन्थ में हित आयु, अहित आयु, सुख आयु, दुख आयु इन चार प्रकार की आयु के लिए हित या अहित, इस आयु का मान और इस आयु का स्वरूप बताया गया है उसे आयुर्वेद कहते हैं। 

आयुर्वेद का वेदों में वर्णन आया है। आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। आज जितनी भी चिकित्सा प्रणालियां है वे सब इन से ही निकली हैं। आज भी चिकित्सा विज्ञान के मौलिक सिद्धान्त वही हैं जिन्हें आचार्यों ने बताया था, उन की प्रयोगविधि और साधनों में परिवर्तन अवश्य आया है।

समानता- दोनों पद्धतियों में सर्वप्रथम यह बताया जाता है कि जीवन जीने की कला क्या है। दिन चर्या, रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या का

मिथ्या आहार-विहार ही समस्त रोगों का कारण माना जाता है उसका सुधार ही उनका निवारण है।

 आयुर्वेद में मिथ्या आहार-विहार के अन्तर्गत रोगों के तीन कारण माने जाते हैं- विषयों का अतियोग, अयोग तथा मिथ्या योग। मर्यादा से अधिक सेवन अतियोग है, जैसे अधिक भोजन करना, अधिक स्त्री प्रसंग करना आदि। बिल्कुल न सेवन करना अयोग कहलाता है, जैसे शरीर की किसी इन्द्रिय से उसका स्वाभाविक कार्य बिल्कुल न लेना तथा विषयों का गलत ढंग से सेवन, मिथ्या योग कहलाता है, जैसे जिह्वा के विषय रस से वशीभूत होकर अधिक मिर्च मसाला-तेल, खटाई आदि अखाद्य वस्तुओं से युक्त आहार ग्रहण करना आदि इस तरह शरीर की पांचों इन्द्रियां- नेत्र, जिह्वा, नासिका, कर्ण तथा चर्म के क्रमशः पांचों विषयों रूप, रस, गन्ध, शब्द, तथा स्पर्श के सेवन की गलतियों के कारण ही रोग होते हैं।

सब रोगों का मूल कारण शरीर स्थित विजातीय द्रव्य हैं।

अर्थात् सब रोग विजातीय द्रव्य के संचय एवं मन्दाग्नि से होते हैं। सब विकारों का सम्बन्ध उदर से है। अजीर्ण, मन्दाग्नि का कारण होता है और स्वयं अजीर्ण विजातीय द्रव्य का कारण होता है।

अर्थात सभी रोगों का कारण शरीर स्थित सड़ा हुआ विजातीय द्रव्य ही है और उसके प्रकोप का कारण विविध अहित आहार-विहार का सेवन है।

विषाक्त विजातीय द्रव्य रक्त द्वारा शरीर में परिभ्रमण करते हुए रक्तवह नाड़ियों में रुकावट आ जाने के कारण जहां रुक जाता हैं वहीं व्याधि की उत्पत्ति होती है।

मन्दाग्नि होने से अपक्व रस रह जाता है, असका नाम आम (विजातीय द्रव्य) है। वही सब रोगों का कारण है। दोनों पद्धतियों की जड़ विजातीय द्रव्य पर सीधा प्रहार करती है। फलतः रोग नष्ट हो जाते हैं और पुनः उनका उद्भव नहीं होता। यथा जिताः संशोधनैर्ये तु न तेषां पुनरूद्भवः ।। - जिस जगह विजातीय द्रव्य एकत्र होता है, उसी जगह रोग हो जाता है।

रोग एक ही होता है। रोग के निदान से स्थान भेद, वेदना के प्रकार एवं रंग से रोगों के नाम अलग अलग रख दिए हैं।

दोनों पद्धतियों के अनुसार आहार ही औषधि है।

दोनों पद्धतियों में उतेजक औषधियों का विशेष स्थान नहीं। पंचकर्म आदि संशोधन क्रियाओं द्वारा चिकित्सा ही वास्तविक चिकित्सा है।


- पंचमहाभूत जिन से शरीर बना है, दोनों पद्धतियों में यही चिकित्सा के उत्तम साधन हैं।


दोनों पद्धतियों का मूल सिद्धान्त प्रकृति स्वयं चिकित्सक है। रोगी के रोग निवारण का काम तो प्रकृति करती है, चिकित्सक या औषधियां नहीं, इन का काम तो प्रकृक्ति के कार्य में सहायता करना है। आतंक पंक मग्नानां हस्तालम्बं भिषग्जितम्। अर्थात्, रोग-रूप कीचड़ में फंसे रोगियों को हाथ का सहारा देना मात्र एक चिकित्सक का कर्तव्य है, स्वास्थ्य-लाभ तो उनको प्रकृति द्वारा प्राप्त होता है।


इस प्रकार स्पष्ट है कि दोनो पद्धतियां एक ही हैं। केवल नाम अलग कर दिए गए हैं।

निष्कर्ष:प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद, दोनों पद्धतियाँ हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत की अनमोल धरोहर हैं। ये न केवल रोगों के उपचार की विधियाँ हैं, बल्कि संपूर्ण जीवनशैली का मार्गदर्शन भी करती हैं। इन दोनों पद्धतियों का मूल उद्देश्य केवल रोग का निवारण नहीं, बल्कि व्यक्ति को पूर्ण रूप से स्वस्थ, संतुलित और आत्मिक रूप से समृद्ध बनाना है।

इनकी समानताएँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि स्वस्थ जीवन जीने के लिए हमें प्रकृति के नियमों का पालन करना चाहिए। आहार, विहार, दिनचर्या और ऋतुचर्या जैसे साधारण नियमों का अनुसरण कर हम गंभीर से गंभीर रोगों से भी मुक्त हो सकते हैं। शरीर में संचित विजातीय द्रव्यों का शोधन और जीवनशैली में सुधार ही इनका मूल आधार है।

अतः यह स्पष्ट है कि चाहे नाम प्राकृतिक चिकित्सा हो या आयुर्वेद, दोनों का लक्ष्य एक ही है – सम्पूर्ण स्वास्थ्य और प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन। यदि हम इन सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाएं, तो न केवल रोगों से दूर रह सकते हैं, बल्कि एक सशक्त, शांत और सकारात्मक जीवन की ओर अग्रसर हो सकते हैं।






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