सावन के महीने और शिव का महत्व-
श्रावण मास चल रहा है। शिव भक्त श्रद्धा और भाव से जलाभिषेक के लिए उत्साहित हैं। कांवड़ियों का समूह बाबा के जलाभिषेक के लिए निकल पड़ा है। भक्तों के मन में एक ओर उमंग और आनंद है, तो वहीं बादल भी महादेव का जलाभिषेक कर रहे हैं। इन सबके बीच यह विचार आता है कि बाबा औघड़दानी महादेव के इस लिंग स्वरूप का क्या महत्व है और किसी मूर्ति के बजाय शिवजी के इस रूप की इतनी मान्यता क्यों है?
अगर शिवलिंग की उत्पत्ति की बात करें, तो सबसे पहले यह जान लें कि लिंग क्या है? दरअसल, लिंग पहचान करने वाले चिह्न को कहते हैं। शिव पुराण में उल्लेख है कि सबसे पहला लिंग ज्योति स्तंभ के रूप में था, जो ॐ कहलाता है। यह सूक्ष्म लिंग प्रणव रूप और निराकार है। इसके अलावा, यह पूरा ब्रह्मांड ही स्थूल लिंग स्वरूप है। शिवलिंग की आकृति ब्रह्मांड की आकृति है। यह एक तरह से ब्रह्मांड का मानचित्र है। पूरा संसार ही लिंग रूप माना गया है। शिवजी के सभी लिंगों की कोई निश्चित संख्या नहीं है। यह कहा जा सकता है कि जैसे भगवान विष्णु के अव्यक्त ईश्वर रूप का प्रतीक शालिग्राम है, वैसे ही भगवान शिव के अव्यक्त ईश्वर रूप की प्रतिमा लिंग है।
ब्रह्मदेव की कहानी...
प्रयागराज में विशाल शक्तिपीठ से जुड़े कथावाचक स्वामी अखंडानंद शिव तत्व पर गहन प्रकाश डालते हुए इस अव्यक्त स्वरूप की व्याख्या करते हैं। ईशान संहिता में यह प्रसंग आता है कि पद्म कल्प के आरंभ में भगवान ब्रह्मा एक दिन स्वेच्छा से घूमते हुए क्षीरसागर पहुंचे। भगवान नारायण हजार फन वाले शेषनाग की शैय्या पर शांत लेटे हुए थे। श्री महालक्ष्मी उनके चरणों की सेवा कर रही थीं। ब्रह्माजी को क्रोध आ गया कि वे जगत के पिता हैं, लेकिन नारायण ने उनका उचित सम्मान नहीं किया। ब्रह्माजी ने क्रोध में नारायण पर प्रहार कर दिया। तब श्री नारायण के दाहिने अंग से भगवान विष्णु प्रकट हुए और दोनों में युद्ध छिड़ गया।
यहां यह बताना जरूरी है कि नारायण स्वरूप सर्वव्यापी है, जिसका एक अंश भगवान विष्णु हैं। ब्रह्माजी हंस पर और विष्णु जी गरुड़ पर बैठकर युद्ध करने लगे। ब्रह्माजी ने 'पाशुपत' और विष्णु जी ने 'महेश्वर' अस्त्र उठा लिए। भगवान शिव ने यह देखा तो दोनों के बीच अनादि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हो गए।
यानी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात (महाशिवरात्रि) को आदि देव भगवान शिव करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश वाले लिंग रूप में प्रकट हुए और यही काल महाशिवरात्रि कहलाया। महेश्वर और पशुपत दोनों अस्त्र शांत होकर इस ज्योतिर्लिंग में लीन हो गए। ब्रह्मा और विष्णु दोनों चकित हुए कि यह तीसरा तत्व कहां से आया। इसके आदि-अंत का पता लगाना चाहिए। जो भी इसके आदि-अंत का पता लगा लेगा, वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्माजी हंस पर ऊपर गए, विष्णु जी ने वराह रूप धारण कर लिंग के नीचे की ओर जाना शुरू किया और पाताल पहुंच गए। लेकिन विष्णु जी मूल का पता नहीं लगा सके और निराश होकर वापस आ गए।
वहीं, ब्रह्माजी को ऊपर से गिरता हुआ केतकी का एक फूल मिला और रास्ते में एक गाय मिली। ब्रह्माजी ने दोनों को अपनी ओर मिला लिया। ब्रह्माजी ने कहा कि उन्होंने ऊपर तक जाकर अंत का पता लगा लिया है और गाय और फूल उनके साक्षी हैं। गाय और फूल ने ब्रह्माजी का साथ दिया, लेकिन यह असत्य था। विष्णु जी ने सच कहा कि वे आदि का पता नहीं लगा सके और ब्रह्माजी श्रेष्ठ हैं।
ब्रह्माजी ने झूठ बोला, विष्णु जी ने भक्ति दिखाई
जैसे ही विष्णु जी ने ब्रह्माजी की पूजा करनी चाही, तुरंत ज्योतिर्लिंग स्तंभ से साक्षात शिवशंकर प्रकट हुए। उन्होंने भौंह का एक बाल उखाड़कर पृथ्वी पर मारा और भैरव प्रकट हो गए। शिवजी की आज्ञा से भैरव ने ब्रह्माजी के पांचवें मुख को काट दिया, जिसने झूठ बोला था। तब से ब्रह्माजी चार मुख वाले हो गए। शिवजी ने ब्रह्माजी को श्राप दिया कि उनकी लोक में पूजा नहीं होगी, सिर्फ यज्ञ और पुष्कर में होगी। केतकी फूल को श्राप दिया कि वह किसी देवता की पूजा में नहीं चढ़ेगा, सिर्फ मंडप सजावट में प्रयोग होगा। विष्णु जी को सच बोलने के लिए वरदान दिया गया कि उन्हें ईश्वरत्व प्राप्त होगा। शिव ने कहा कि यह लिंग निराकार ब्रह्म का प्रतीक है और इसकी पूजा करते रहो। विष्णु और ब्रह्माजी ने लिंग की पूजा की और गंगाजल से अभिषेक किया। तभी से शिवाभिषेक की परंपरा शुरू हुई।
विष्णु और ब्रह्माजी के आग्रह पर भगवान शिव जगत के कल्याण के लिए बारह ज्योतिर्लिंगों में विभक्त हो गए। तभी से बारह ज्योतिर्लिंगों की पूजा होती है। पार्थिव लिंग सभी लिंगों में श्रेष्ठ है। इसकी पूजा से मनोवांछित फल मिलते हैं। जैसे सतयुग में रत्न, त्रेता में स्वर्ण और द्वापर में पारे का महत्व था, वैसे ही कलयुग में पार्थिव लिंग का विशेष स्थान है। जैसे गंगा सभी नदियों में पवित्र है, वैसे ही पार्थिव लिंग सभी लिंगों में श्रेष्ठ है। जैसे सभी व्रतों में शिवरात्रि का व्रत श्रेष्ठ है, वैसे ही सभी लिंगों में पार्थिव लिंग श्रेष्ठ है।
पार्थिव लिंग की पूजा
पार्थिव लिंग की पूजा धन, वैभव, आयु और लक्ष्मी देने वाली है। जो व्यक्ति शिव का पार्थिव लिंग बनाकर प्रतिदिन पूजा करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करता है। निष्काम भाव से पूजा करने वाले को मुक्ति मिलती है। पार्थिव लिंग की संख्या मनोकामना पर निर्भर करती है। बुद्धि के लिए एक हजार, धन के लिए डेढ़ हजार, वस्त्र-आभूषण के लिए 500, भूमि के लिए 1000, दया के लिए 3000, तीर्थ यात्रा के लिए 2000 और मोक्ष के लिए एक करोड़ पार्थिव लिंगों की पूजा करनी चाहिए। पार्थिव लिंग की पूजा करोड़ यज्ञों के समान फल देती है और भोग व मोक्ष प्रदान करती है। इसके समान कोई दूसरा श्रेष्ठ नहीं है। इस तरह शिवलिंग की नियमित पूजा भवसागर पार करने का सबसे सरल और उत्तम उपाय है।
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